दान का महत्व

22 August, 2017
दान का महत्व
दान का महत्व
अक्सर जीवन मे दान का महत्व है,माता अपने ममत्व को बच्चे के लिये दान करती है पिता अपने पुरुषार्थ के लिये अपने जीवन के की जाने वाली मेहनत का दान अपने बच्चे के लिये करता है,भाई अपने बाहुबल को दान करता है,बहिन अपने तरीके से सम्बन्ध बनाकर और समाज बनाकर अपने भाई के क्षेत्र का दान करती है,भाई अपनी बहिन के लिये आजीवन अपनी सहायता और शक्ति का दान करता है,बडा होकर बच्चा अपने माता पिता के वृद्ध होने पर उनकी देख रेख और भोजन का दान करता है,पत्नी पति को रति सुख प्रदान करती है,अपने द्वारा पति के लिये निस्वार्थ भाव से भोजन और पति सुख और आयु वृद्धि के प्रति पूजा पाठ करती है आगे के लिये वंश चलाने के प्रति अपनी कामना को समर्पित करती है।
बहू अपने स्वार्थ को त्याग कर पति के कुल मे शांति और सम्पन्नता बनाने के प्रति अपने ज्ञान का दान करती है,दामाद अपने बाहुबल और सम्मान के द्वारा अपने ससुराली जनो का मान बढाने में अपनी शक्ति का दान करता है। कुछ लोग अपने व्यवसाय स्थान पर बैठ कर रास्ता बताकर अपने ज्ञान का दान करते है,कुछ लोग प्यासों के लिये प्याऊ खुलवाकर धर्मशाला बनवा कर लोगों के जीवन को सर्दी गर्मी से बचाने के लिये अपने बाहुबल का दान करते है। हकीकत मे देखा जाये तो यह शरीर ही दान से और दान के लिये बना है। एक व्यक्ति एक लाख रोजाना कमा रहा है लेकिन वह अपने लिये मात्र कुछ सौ रुपया में अपना पेट भर लेता है,और बाकी का धन वह अपने परिवार के लिये जमा करता है कि वह अपनी संतान के लिये इतना इकट्ठा कर दे कि उसके बाद उसकी संतान किसी की मोहताज नही रहे और वह सुखी रहे। लेकिन इस सुखी रखने के कारणों में मोह पैदा हो जाता है,यह मोह करना ही उसकी भूल है और इसी मोह के चक्कर में शरीर से की जाने वाली मेहनत दान स्वरूप न होकर मोह के जंजाल में चली जाती है।
माता ने अगर पुत्र को जन्म देने के बाद यह सोच लिया कि उसका पुत्र बडा होकर उसकी पालना करेगा,उसकी सेवा करेगा,उसके लिये बहू लाकर उसकी आज्ञा का पालन करवायेगा तो माता का यह मोह उस समय बेकार हो जाता है जब लडका बडा होता है और अपनी मर्जी से शादी विवाह करने के बाद अपना घर अलग बसा लेता है माता अपने पुत्र के सहारे रहने के कारण और अपने लिये कुछ न बचाकर केवल पुत्र के लिये ही सब कुछ करने के बाद जब पुत्र पास से निकल जाता है और पत्नी के लिये सोचने लगता है तो माता का वह पालन पोषण से लेकर पढाने लिखाने और सभी साधन पुत्र के लिये जुटाने के प्रति बेकार हो जाता है। उस समय माता और पुत्र के बीच तनातनी चलती है और बहू जो दूसरे घर से आयी है उसके अन्दर यह भावना घर कर जाती है कि माँ केवल बेटे से धन का मोह करती है और बेटा माँ के कहे पर चलता है उसकी बात को नही सुनता है,इस प्रकार से तकरार बढ कर बडी तकरार बन जाती है,बेटा न तो माँ को छोड सकता है और न ही पत्नी को छोड सकता है,पत्नी के पास दो रास्ते होते है एक अपने माता पिता का और दूसरा कानून का,लेकिन माता के पास एक ही रास्ता होता है वह होता है
अपने पुत्र का,बहू या तो अपने माता पिता से प्रताणना दिलवाती है अथवा कानून का सहारा लेकर माता पिता को बजाय भोजन और सहायता देने के जेल की हवा दिलवाने का काम करती है,बेटे के सामने दो ही रास्ते होते है या तो वह बहू को लेकर अलग रहना शुरु कर दे या बहू को तलाक देकर फ़िर से माता पिता के कहने में चलने लगे,उसे दूसरा साधन ही सही लगता है,लेकिन इन सब के पीछे जो था वह माता का लोभ ही था,अगर माता ने पिता के साथ मिलकर पहले से ही पुत्र की शिक्षा के बाद उसे जीविका के साधन देकर अलग कर दिया होता,और बहू को पहले से ही अलग करने का मानस बना लिया होता तो जेल जाने की या प्रताणित होने की समस्या ही नही आती,यह सब मोह के कारण ही माना जा सकता है,जब पालने पोषणे मे कोई मोह नही था,अगर उस समय मोह होता तो डाक्टर के पास बच्चे के बीमार होने के बाद नही ले जाया गया होता,शिक्षा के स्थानों में एडमिसन नही करवाया गया होता,सर्दी गर्मी के समय में उसे कपडे और रहने के स्थान का बंदोबस्त भी नही करवाया गया होता,लेकिन जैसे ही वह कमाने लायक हुआ और माता के अन्दर मोह ने जन्म ले लिया।

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